GIHARA SAMAJ HISTORY

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गिहारा ही तूफान है | रामायण की जान है

- एक प्रयास -

गिहारा समाज का एक अदभूत इतिहास रहा है। ये कौन थे और कहां से आए थे, यह एक रहस्य ही बना हुआ है। गिहारा जाति के विद्वानों का कहना है कि गिहारा राजपूत रहा है, यह सत्य है। राजपूतों का एक लम्बा इतिहास रहा है, परन्तु जिस प्रकार गिहारा जाति का रहस्य है, वैसे ही राजपूतों का रहस्य है। राजपूत कौन थे, क्या राजपूतो का गिहारा जाति से कोई सम्बन्ध रहा है ? कहा जाता है कि आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व भारत में सिन्धु घाटी सभ्यता का उदय हुआ था, जो समस्त सभ्यताओं से अच्छी मानी जाती थी। उस समय के वे लोग कौन थे और अब वे कहां चले गए ? क्या वह सभ्यता नष्ट हो गई, आदि पहलुओं पर अध्ययन करने से यह पता चलता है कि आज ईरान, ईराक, रूस और जर्मनी आदि देशों को, जिन्हे इतिहास में मध्य एशिया के नाम से जाना जाता है, उत्तर भारत के आक्रमण के बाद भारत में बस गई थी, क्या वे राजपूत थे। वास्तव में राजपूत कुलों में विभाजित थे। धीरे-धीरे यह साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति के कारण लगभग 500 वर्षों तक युद्ध करते रहे जिसे आर्य व अनार्य तथा सूर्यवंश व चंद्रवंश के नाम से जाना जाता रहा। राजपूत राजाओं ने अपने वंशो के इतिहास लिखवाए थे तथा उनका संबंध प्राचीन सूर्यवंश तथा चंद्रवंश के साथ जोड़ा गया। राजपूतों ने पश्चिम तथा भारत में अपने राज्य स्थापित किए। राजपूतों के इस रहस्य ने गिहारा के इतिहास को लुप्त कर दिया। आज इतिहास गवाह है कि दोनों वंशों के प्राणी राजपूतों में एक विशेष खासियत रही थी कि वह दूसरों की सत्ता सभ्यता को अपनाकर ही दम लेते थे चाहे इसके लिए अपनी जान की बलि ही क्यों न देनी पड़े। साहसी, बहादुर और निडर होने की वजह से कई वर्षों तक आपस में लड़ते रहे। युद्ध की वजह से अनेक राज्यों का पतन हो गया। ÷रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाईं पर वचन न जाई' की वजह ने इन्हे कहीं का नहीं छोड़ा। उस समय जो पूंजीपति राजा थे, वे निर्धन होने लगे और उनके वंश भूमिहीन होने लगे। उन राजाओं को यह होश नहीं रहा कि हमारे कुल वंश का क्या होगा और वह अपने मोह में लड़ते रहे। जब धन-दौलत समाप्त हो गए तब उच्च वर्ग (राजपूतों) ने उन्हें शूद्र के नाम से पुकारा और इतिहास ने इन्हें चंद्रवंशी का दर्जा दे डाला। चंद्रवंशी राजपूत होने के बावजूद उन्हें शूद्रों का जीवन बिताना पड़ा उस समय शूद्रों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। निर्धन होने के कारण उनका जीवन कष्टपूर्ण रहा। इनमें से अधिकांश किसान थे। इस कारण ही वे और गरीब होते चले गए। वे अन्न का उत्पादन करते और उस पर ही निर्भर रहते थे। उनको समाज में किसी भी प्रकार का कोई अधिकार नही था। न तो वे किसी का विरोध कर सकते थे और न ही किसी से प्रार्थना। भारत में ये छोटी-छोटी जातियों में विभाजित थे और इन्हें छोटी जाति का समझा जाता था। कभी-कभी जब इन पर अधिक जुल्म होते थे तो इन्हें अपने राज्यों को छोड़कर अन्यत्र राज्यों में पलायन करने को विवश होना पड़ता था। डर, भय इन्हें कोई स्थायी स्थान न दे पाया। इन सीधे व सच्चे लोगों को अपनी मातृभूमि से प्यार होने के बावजूद दर-दर की ठोकरें को अछूत वर्ग का जीवन व्यतीत करने को विवश होना पड़ता था। आदमी ही दूसरे आदमी पर अत्याचार ढा रहा था। यह भाग्य की विडम्बना ही थी कि ये लोग इन तमाम अत्याचारों को सहने को विवश थे। ÷मरता क्या न करता' की स्थिति में फंसे इन लोगों को पेट भरने के लिए जो भी काम मिला, इन्हें करना पड़ा। आखिर यह सब उनकी मजबूरी जो थी। यही नही, इनके अतिरिक्त कुलीन वर्ग ने इन्हें शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकता से भी वंचित रखा था। आज हिन्दुस्तान में नहीं, पूरे संसार में मानवता की पूजा की जाती है और गिहरा जाति एक ऐसी जाति है जिसमें पूर्ण रूप से मानवता समाई हुई है । गिहारा जाति में रामायण के अनेक तथ्य पाए गए है जैसे कि जो गिहारा शब्द है । यह बोलने तथा लिखने में अच्छा लगता है, किंतु इसकी कोई परिभाषा नहीं है । इस शब्द की परिभाषा गिहारा है । आगे चलकर गिहारा को उचित स्थान दिया जाएगा । पूर्व काल में जिस प्रकार हिन्दुस्तान के नाम को अरब लोग सिन्धु स्थान कहा करते थे, ठीक इसी प्रकार अनेक राज्यों तथा अनेक जातियों के शब्दो को भी कई प्रकार से बोला जाता था । जैसे कि हिन्दू शब्द सिन्धू जैसे अशुद्ध शब्द के रूप में उच्चारित होता था । सिन्धु नदी वाले देश को (हिन्दु को) अरब निवासी सिन्धु स्थान कहते थे । सिन्धु भारत के पंजाब तथा सिंध प्रांत में बहने वाली एक प्रसिद्ध नदी का नाम है, किन्तु अरब के स्त्री-पुरुष ÷स' अक्षर को ÷ह' कहते है, इसी कारण वे सप्ताह को हफ्‌ता कहते थे और गिहारा जाति में ÷स' शब्द बहुत महत्व रखता है । अरब में आर्शीवाद लेना भी उचित माना जाता क्योंकि यदि आर्शीवाद के रूप में किसी को शतायु (100 वर्ष की आयु) कहे तो उनके मुख से शतायु के स्थान पर हतायु निकलता है और हतायु का अर्थ ÷मरना' होता है । अर्थात्‌ यह आर्शीवाद भी गलत उच्चारण के कारण एक श्राप बन जाता है । इसी प्रकार शुक्रवार को जुम्मा कहते हैं और सोमवार को पीर का दिन कहते हैं । तुम सौ वर्ष जीयो के स्थान पर तुम मर जाओ हो जाता है । अरब, ईरान के लोग हिन्दुस्तान को सिन्धु स्थान कहते हैं । इस प्रकार भारत के लोगो जो कि हिन्दुस्तान में रहते थे, हिन्दू कहलाए जाने लगे । इस प्रकार गिहारा जाति के इतिहास को जानने के लिए यह बातें जानना बहुत जरूरी है । गिहारा शब्द भी किसी शब्द का उच्चारण है, यह आपको ज्ञात होगा । महाऋषि बाल्मीकि जी ने रामाणण की रचना की थी, तो सर्वप्रथम अपने मुख से मराः मराः शब्द का उच्चारण किया था । मराः मराः को अगर पल्टा जाए तो राम-राम शब्द बनता है । प्रमुख धर्मो के अतिरिक्त भारत में कई सम्प्रदाय भी हैं । जैसा कि आपको ज्ञात होगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने की अनुमति है । सभी धर्मो को फलने-फूलने का मौका दिया जाता है । ऐसे ही भारत में हिन्दू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है । इसके प्रारंभ की कोई निश्चित तिथि नहीं है । एक समय ऐसा माना जाता था कि हिन्दू धर्म का प्राचीनतम रूप वैदिक धर्म है, परंतु हड्प्पा पूर्व और हड़प्पाकालीन पुरातात्विक अन्वेषण मात्र देवी पूजा और पशुओं की पूजा के प्रमाण देते हैं । यह सभी हिन्दू विष्वासों के अंग हैं । हिन्दू धर्म का जो रूप आज हम जानते हैं । वह चौथाई शताब्दी के लगभग गुप्त काल में विकसित हुआ । अनन्त काल से यह अनेक विचारधाराओं को स्वीकार करता रहा है । हिन्दू धर्म का आधारभूत लक्षण है, परंतु व्यक्ति को जिस रूप में वह चाहे उसकी पूजा की स्वतंत्रता देता है, कोई भी हिन्दू ब्रह्‌मा, शिव , कृषण , राम या माता सीता व किसी की भी पूजा कर सकता है । गिहारा बन्धुओ आपको ज्ञात होगा कि हमारे समाज में भी हिन्दुत्व ने हमें यह ज्ञान दिया कि अपने पूर्वजों की पूजा-अर्चना अनिवार्य रूप से करनी चाहिए । वैदिक युग में समाज को चार वर्णो या जातियों में बांटा गया है, जो इस प्रकार है - ब्राह्मण, क्षेत्रिय, वैष्य और शुद्र। कौन-कौन सा तबका कौन-कौन सा कार्य करेगा, यह जन्म से ही निष्चित कर दिया गया । ब्राह्मण कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ और शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत थे, क्षेत्रिय शाशक और योद्धा होते थे और व्यापारी वर्ग वैष्य कहलाती थे । शुद्र शारीरिक मेहनत करते थे । आरम्भिक वैदिक युग में वर्ण व्यवस्था लचीली थी। कालान्तर में ब्रह्मणों, क्षत्रियों व वैष्य को कुछ विशेष अधिकार मिले जिनमें शुद्रो को वंचित रखा गया । ब्राह्मणों के बच्चे ब्राह्मण कहलाने लगे चाहे वे किसी अन्य व्यवस्था में क्यों न सलंग्न हो । शुद्रो की कुछ जातियों को अछूत माना जाने लगा जिससे छुआछूत की प्रथा आरम्भ हो गई । समय बीतने पर जाति व्यवस्था बहुत जटिल होती गई । असंख्य जातियां तथा उपजातियां विकसित हो गई । कई जातियां अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगीं तथा कथित निम्न वर्ग के लोग कथित उच्चवर्गीय लोगों के हाथों सताए जाने लगे । प्रत्येक जाति के अपने तौर-तरीके और संस्कार होते हैं जिनके कारण वह अन्य जातियों से अलग होते जाते हैं और जातिवाद के परिणामस्वरूप समाज का विभाजन होता जाता है । यह स्पष्ट है कि पिछड़ें वर्गो को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए कदम उठाय जा रहे हैं, किंतु हम देखते हैं कि जातिवाद लोकतंत्र के लिए एक बड़ा अभिशाप बन गया है । कोई भी राष्ट्र तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि उसके समाज में विशमताये बनी रहेंगी। यह हमारे सामने एक बड़ी चुनौती है । यदि हम अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं तो हमें अपनी विचारधारा बदलनी होगी और प्रगतिशील बनना होगा और प्रगतिशील हम तब बन सकते हैं जब हम सब एकमत हो जाएं । एकता में शक्ति होती है और समय की पुकार है कि सारे मतभेद भुला दिए जाएं और कठिन समय से उबरने के लिए संसाधन जुटाए जाएं । हम उन वीरों की संतान हैं जिन्होंने कभी हार नही मानी हमें गर्व है कि हमारा जन्म गिहारा जाति में हुआ । गिहारा जाति कोई तुच्छ जाति नहीं बल्कि रामायण का एक हिस्सा है जो भारत का सर्वप्रय ग्रंथ है । समाजवादी अलगाववादी शक्तियों ने तथा धर्म के ठेकेदारों ने कभी यह प्रयास नहीं किया कि हमारे इतिहास पर अपनी दृष्टि डालें। रामायण एक ऐसा ग्रंथ है जो कि यह बाताता है कि हम सब एक हैं चाहे वह चंद्रवंशी हो या फिर सूर्यवंशी । रहस्य गिहारा समाज में बहु-बेटियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध है। इन्हें हम क्या कहेंगे । क्या यह कोई नारी के प्रति सजा है या फिर अपने बुजुर्गो को सच्ची श्रद्धांजलि । यह सच्ची श्रद्धांजलि है तो मर्दो पर क्यों नहीं लागू होती है । यह परम्परा आज भी गिहारा समाज में लागू है । आज नारी को पुरषों के समान अधिकार हैं । समाज में उनका स्थान बहुत छोटा माना जाता थ । हमारे पिछड़ेपन के अनेक कारणों में सक एक सामाजिक बुराई भी एक प्रमुख कारण रही है । इस बुराई में मुख्य रूप से नारी का शोषण और उसके प्रति अपनाई जाने वाली क्रूरता रही है । नारी सीता माता भी रही हैं जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में कष्ट झेले है, उसे कोई भुला नहीं सकता । आज भारत की सभी नारियों को माता सीता से प्रेरणा लेनी चाहिए । आप भली-भांति जानते हैं कि मात सीता रामायण की मुख्य पात्र तथा श्री राम की धर्मपत्नी रही हैं । भारत में अनेक राजाओं का जन्म हुआ और वे अपनी गाथाएं तथा यादें भारत को एक धरोहर के रूप में दे गए । भारत में कई अवतारी पुरषों ने जन्म लिया जिनमें श्री राम तथा राजा जनक जैसे महापुरषों ने इस धरती की शोभा बढ़ाई और त्यागी पुरषों कहलाए । राजा जनक ने सर्वप्रथम वंषवाद जैसी प्रथा को तोडकर यह सिद्ध किया की पृथ्वी पर सभी प्राणी एक समान हैं । उन्होंने श्री राम का विवाह माता सीता से करने का एलान किया । राजा जनक ने ऐलान में एक शर्त रखी थी । वह शर्त इस प्रकार थी कि जो भी राजा, चाहे वह चंद्रवंशी हो अथवा सूर्यवंशी हो, जो कोई भगवार शंकर के धनुष पर प्रत्यंचा बढ़ा देगा, मैं राजा जनक उसे अपनी बेटी का हाथ दे दूगां । यह खबर आग की तरह सारे राज्यों में फेल गई। सभी राजाओं की मंषा थी कि वह इस स्वयंवर में हिस्सा लें और सीता को अपनी अर्द्धागिनी बनाएं क्योंकि माता सीता उस युग में विष्व सुन्दरियों में से एक थीं । इस कारण राजा जनक के मजबूर होकर यह शर्त रखनी पड़ी थी । कौन नहीं चाहता कि उसकी बेटी जहां भी जाए वह सुखी रहे । एक पिता होने के कारण जैसा उचित समझा वैसा किया और बेटी के लिए हर माता-पिता का कर्त्तव्य बनता है कि उसके लिए योग्य वर की तलाश करें । ऐसा ही राजा जनक ने किया । यह बात अनेक चंद्रवंशी राजाओं को रास नही आई और वे इस स्वयंवर में भाग लेने की तैयारी में जुट गए । राजा जनक को विष्वामित्र के आने का समाचार मिला । समाचार मिलते ही राजा जनक स्वागत करने के लिए नगर के बाहर आए । आते ही उन्होंने मुनि का आदर-सत्कार किया और प्रणाम करते हुए कुशल समाचार पूछे । जब उनकी नजर राम-लक्ष्मण की ओर गई तो उन्होंने विष्वमित्र से पूछा मुनिवर, ये सुन्दर बालक कौन है ? ये तो कोई राजकुल के भूषण लग रहे हैं । महाराज आप ठीक कह रहे हैं । ये कौषल नरेश महाराज दशरथ के पुत्र हैं । आपके पास उपस्थिति धनुष को दिखाने के लिए यहां लाया हूं । पुत्री सीता के संबंध में आपने जो प्रण किया है, उसे मैं सुन चुका हूं। राजा जनक ने मुनि की यज्ञाषाल के निकट ही एक रमणीक उद्यान में मुनि और राम-लक्ष्मण के ठहरने का प्रबंध कर दिया । अगले दिन गुरू विष्वमित्र के साथ राम-लक्ष्मण यज्ञषाला में गए । राजा जनक ने उन्हें सूर्यवंषी राजाओं को अपना-अपना आसन ग्रहण करने को कहा। इस बीच गुरू विष्वामित्र जी ने फिर धनुष की बात छेड़ी। तब राज जनक ने सेवकों को आदेष दिया और कहा जाओ सुनाम धनुष ले आओ। आज्ञा पाकर सेवक तुरंत आठ पहिये वाले एक बड़े संदूक को खीचं लाए जिसमें कि धनुष रखा था । तब राजा जनक बाले उपस्थिति मुनिवर तथा राजाओं, यह धनुष शंकर जी का है । देवताओं ने हमारे पूर्वज देवरात को दिया था । इस भारी धनुष को कोई नहीं उठा सकता । प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर की बात है । राजा जनक का संकेत पाते ही अनेक चंद्रवंशी राजाओं ने अपनी-अपनी मूंछों पर बल दिया और एक-एक कर सभी अपना जोर आजमाने लगे परंतु सभी चंद्रवंशी राजाओं को लज्जित होना पड़ा । किसी से भी वह धनुष हिला तक नही और जिसने भी सीता को पाने की इच्छा रखी थी, वह गुस्से से आग हो उठा और स्वयंवर को एक शड्यंत्र का नाम दिया । राजा जनक, तुमने हमें बुलाकर अपमानित किया है हम कभी भी नही भूलेगें कि तुमने अपनी बेटी के विवाह में जो शर्त रखी वह कोई प्रण नही बल्कि एक सौदा है । तुमने हम चंद्रवंशीयों को गुमराह किया है । आप स्वयं जानते हैं, जो बेटियों पर शर्त रखते है, वह सौदा नहीं तो क्या है? आप स्वयं जाते हैं कि ऐसे वचनों को सुनने पर क्या करना चाहिए । ऐसे भयंकर शब्दो को सुनकर राजा जनक क्रोधित नही हुए और हाथ जोड़कर कहने लगे - हे राजकुमारों, यह क्रोधित होने का समय नहीं है । मैं एक पिता हूं और पिता को हक है कि वह अपनी पुत्री के लिए योग्य वर देखें । अगर इतिहास मुझसे पूछेगा तो मैं क्या जवाब दूंगा कि चंद्रवंशी राजाओं में कोई एक वीर योद्धा नहीं जो प्रत्यंचा चढ़ा सके । मुझे अफसोस ही नहीं बल्कि बड़ा दुःख है। मैं पिता होने के नाते आप सभी से प्रार्थना करता हूं कि आगे आएं और प्रत्यंचा चढाएं । यह सब सुनकर सभी राजा गुरूदेव का सकेंत पाकर अपने-अपने स्थान पर बैठ गए । सूर्यवंशी श्रीराम ने धनुष सहज ही उठा लिया और ज्यों ही प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे खींचना चाहा कि वह बीच से टूटकर दो टुकड़े हो गया । वज्रपात जैसा भयंकर शब्द हुआ और पृथ्वी कांपने लगी । धनुष के टूटते ही राजा जनक के हर्ष का ठिकाना न रहा । राम का सौदंर्य और बल विक्रम देखकर वे बोले - मुनिवर, आपकी कृपा से मुझे अपनी बेटी के लिए मनचाहा वर मिल गया । अगर आपकी अनुमति मिल जाए तो मैं महाराज दशरथ के पास सदेंश भेज दूं। विष्वामित्र बोले - अब क्या पूछने की बात है, शुभ कार्य में देरी कैसी। अचानक राजा जनक के दरबार में परशुराम का आना होता है। परशुराम जी ने राजा जनक को अनेक अपशब्द कहे । परशुराम ने अपना बल व गुस्सा दिखाया । इस पर श्री राम ने उनके गुस्से को ठण्डा किया । क्रोध में राजा जनक को मूर्ख कहा पर राम के शब्दों से परशुराम का गुस्सा शांत हो गया । राजा जनक ने अपने मंत्रियों को शीघ्रगामी रथ लेकर अयोध्या जाने की आज्ञा दी । राजा जनक के मंत्रियों द्वारा राम-लक्ष्मण का समाचार पाकर राजा दशरथ बड़े आनंदित हुए । धर्नूभंग की बात सुनकर उनके आनंद का ठिकाना न रहा । वहां राजा जनक भी कोई कम खुशी नही मना रहे थें । राजा जनक की सारी नगरी जगमग-जगमग हो रही थी । एक-एक घर, एक-एक द्वारा बंदनवारों से सजा था । चारों और मंगल गीत सुनाई दे रहे थे । राजमार्ग और राजमहल में दर्षकों की अपार भीड़ थी और क्यों न हो । यह मधुर मिलन जैसे कोई स्वर्गमय हो रहा हो । मिथिला नगरी में तो चांद अपनी चांदनी फैला रहा था। मिथिलावासियों ने तो पहली बार ऐसी खुशी देखी थी । प्रिय गिहारा बन्धुओ, आप सोच रहे होगें कि इस कहानी से गिहारा जाति का कया संबंध है? आपका सोचना उचित है, कृपा आगे पढें तो अब समझ आ जाएगा । सीता में तो अजीब-सी खुशी की लहर थी । उनके साथ उनकी सखियों में नई उमंग उमड़ रही थी और यह कामना कर रही थी कि जिस प्रकार सखी का संजोग श्री राम से मिला, वह संजोग सारा जीवन बना रहे और हमारी सीता सारी जिन्दगी खुश रहे और अयोध्या की महारानी बने, ऐसी अपेक्षा सभी मिथिलावासियों को थी । राजा जनक ने बेटी सीता को बड़ नाजों व लाड़-प्यार से पाला था, उन्हें कभी किसी प्रकार का दुख नही मिला था । विवाह मण्डप मणियों और हीरों के फूल-पत्तों से सजा था । मणियों के बने मोर और तरह-तरह के पक्षी विवाह मण्डप पर जड़े थे जो हवा चलने पर गूंजते-बजते थे । बहुमूल्य वस्त्रों और आभूच्चणों से सुसज्जित चारों राजकुमारियों को लेकर राजा जनक भी मण्डप में आए । राजा जनक सीता को देखकर महाराज दशरथ से बोले - राजन, यह मेरी बड़ी बेटी सीता है, जो मुझे हल चलाते समय धरती से मिली थी । आपके बेटे श्रीराम ने मेरा प्रण पूरा करके इसे वरण करने का अधिकार प्राप्त किया और यह मेरी दूसरी बेटी उर्मिला है । ये दोनों कन्याएं मेरे छोटे भाई कुषध्वज की हैं । बड़ी मांडवी है और छोटी श्रुतकीर्ति । मेरी इच्छा है कि सीता के साथ इनका भी विवाह हो जाए । राजा जनक के प्रस्ताव को राजा दशरथ ने सहर्च्च स्वीकार कर लिया । राजा जनक ने अपनी बेटियों को आर्षीर्वाद देते हुए कहा मैं तुम्हारा हाथ तुम्हारे वरों को दे रहा हूं । मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विष्वास भी है कि तुम अपने धर्म का पालन करोगी । अपने धर्म में रहकर अपने पिता की मान-मर्यादा बनाकर रखोगी और सारा जीवन अपने पतियों की छाया बनकर बिताओगी । आज तक तुम मेरी बेटी थी । आज के बाद राजा दशरथ तुम्हारे पिता होंगे । खुशी का ऐसा समां बना हुआ था मिथी्लावासियों का जैसे कोई स्वप्न पूरा हो रहा हो । बेटी सीता अयोध्या की महारानी बनेगी, राजा जनक ने परिवार सहित सीता का विवाह सम्पन्न कराया । मिथिलवासियां ने कभी सोचा भी नही होगा कि बेटी सीता का जीवन श्रीराम के साथ कितना दुखदायक होगा। अफसोस, राज जनक ने स्वयंवर क्या कराया, उन्हें अपने ही चंद्रवंषियों से अपशब्द सुनने को मिले । किसी ने मूर्ख कहा तो किसी ने सौदागर कहा। पिता होने के नाते राजा जनक ने अपने कर्त्तव्य का पालन किया और अपना धर्म निभाया अनेक शब्द जेसे नीच, बेटी पर शर्त रखने वाला पिता, निर्लज्ज, कपटी आदि सुने । पिता होना कोई गुनाह नहीं था । जो उन्होंने किया हर पिता करता । राजा होने पर भी वह साधुओं का-सा जीवन व्यतीत करते थे। वे विदेह भी कहलाए जाते थे । आज के आधुनिक काल में गिहारा जाति के लोग इस रहस्य के जाल में उलझे है। उस वक्त प्राचीन काल के समय राजा जनक ने कभी सोचा भी न होगा कि उसके अपने खानदान या चंद्रवंषी लोग इस कदर तोहमत लगाएगें । मेरे इस फैसले पर चंद्रवंषियों को यह आपत्ति क्यों ? जब स्वंवर हो रहा था तो वह उसमें जीतकर दिखाते है । आज गिहारा जाति ही नहीं बल्कि भारत के सभी समाज को रामायण के इस अध्याय से प्रेरणा लेनी चाहिए । यह अध्याय हर मानव की जीवन शैली है । गिहारा जाति का जो रहस्यमय इतिहास है, किसी भी इतिहास में माता सीता जैसी विडम्बना नहीं हुई होगी। राजा जनक ने सपने में भी नही सोचा होगा कि मैं जो बेटी सीता का विवाह रघुवंषी श्री राम से कर रहा हूं उसे अपना राजमहल त्यागना होगा और उसे 14 वर्ष का वनवास भोगना होगा और उसके साथ श्री राम को भी गृह त्यागना होगा । गिहारा वनवासी बनना होगा और मेरी बेटी को भी ग्रहारी बनना पड़ेगा । उच्च वंष या उच्च कुल से यह साबित नहीं होता कि उस खानदान में कोई विवाद नहीं होगा । यह सब विधाता की मर्जी है, यह सोचकर मैंने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया । जब श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास मिला, वह गिहारा कहलाया। 14 वर्ष के पष्चात्‌ जब राम वापस अयोध्या आए, आने पर उन्हें दोबारा राज-पाट मिला और राजा राम कहलाए । मगर माता सीता का क्या कुसूर था । वह 14 वर्ष के बाद भी अग्नि परीक्षा देने पर भी अयोध्या का परित्याग करना पड़ा । उन्हें तो महारानी बनने का भी अवसर नहीं मिला । वह तो सारी जिन्दगी ग्रहारी कहलाई । महारानी बनने मिथिला से आई, मगर यह कैसे विडम्बना रही माता सीता के साथ । आज भी ऐसे कई उदाहरण हैं जो गिहारा जाति में प्रयोग होते हैं और रामायण से मेल खाते है । जब कभी गिहारा ग्रहारे से मिलता है तो पहचान के रूप में एक-दूसरे को जय राम कहता है और गिहारा जाति की महिलाएं आपस में बात करते वक्त जो शब्द प्रयोग करती है वह रामायण के कई प्रसंगों से मेल खाते है । जैसेकि प्रष्न  : धरती पल्ले पढ़ जाये उत्तर : कौन सी धरती पल्ले पढ़ जाये जिसमें माता महारानी सीता समाई थी । प्रष्न  : दुर पार हो जासी । उत्तर : दुर पार क्या हो गया था, वहां तो लंका थी पर जमना थी या समुद्र पार तो लंगा में आग लगी थी । प्रष्न  : आग लगे माई उत्तर : आग तो लगी थी क्योंकि माता सीता ने अग्नि परीक्षा दी थी।

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