ǘ (सत्य की खोज) Ň

संसार के प्राणी तो कितने ही प्रकार के जन्मे है सभी धरा मे जीवन यापन करने के लिए परिश्रम करते है चाहे वह किसी भी वर्ग जात या तो पादप हो या जन्तु सभी एक दूसरे पर आश्रित है और अपने लक्षय को पाने के लिए लगातार परिश्रम कर रहे है और जब तक इस श्रष्टि का अंत नही होगा इस पापकाल का समापन नही होगा. प्रत्येैक जीव परिश्रम करके अपना जीवन जीते रहेगे. इन सभी मे मानव वह उच्च श्रेणी प्राणी है जो अन्य जीवो की अपेक्षा सोचने समझने और कार्य करने मे श्रेष्ट है लेकिन मानव भी तो वही करता है जो सभी जीव करते है क्या मानव को कुछ ऐसा नही करना चाहिए. कि वह संसार मे अपनी विशिष्टता बनाये रखे. मेरे मत से तो लगता है कि मानव यह कर सकता है याने कि सत्य की खोज कहते है कि जो इस विचार को ठान लेता है तो परम आनंद (सत्य की खोज) कर लेता है पर वह ये सब कैसे करे इंसान तो अपनी दिनचर्या मे इतना व्यंस्त हो गया है कि उसे आधुनिक संसाधन, तडक, भडक, संम्पत्ति का विस्तार करने के सिवा कुछ सूझता ही नही है. फिर भी मानव का महामानव होना एक लेश मात्र या बिन्दू मात्र ही सत्य साबित होता है तभी तो कईयो मे एक योगी, तपस्वी या संत होता है सभी नही हो सकते वही तो मेरा तर्क या यूं कहे कि प्रश्न है क्यो नही प्रत्येक मानव योगी, बन सकता, क्योन प्रत्येेक मानव महामानव को प्राप्त नही होना चाहता. क्या उसकी लालसा नही की वह विश्व मे विशिष्ट बन जाये. सभी तो चाहते पर उस लक्ष्य का पीछा कौन कर सकता है जिसका मार्ग कांटो, से भरा पडा है वह ऐसा कोई कठिन कार्य नही कि मानव न कर सकें. पर मानव तो अपनी मानवता को खत्म करने पर तुला हुआ है भोग विलाश मे खोया रहता है मांस, मंदिरा, काम, बैर, क्रोध ओर आलस्य को त्यागकर स्वच्छ हो जाये तो हो सकता है कहने का मतलब है कि- तन, मन, और विचार तो हो फिर भला कौन रोगी होगा- सभी योगी हो जायेगे। (सत्य एक नही अनंत है- राह पर चलते जाओं सत्य की की प्राप्ति अवश्य होगी)