साहित्य और संस्कृति के प्रतीक थे : लाला जगत ज्योति प्रसाद

साहित्य, समाज और राष्ट्र को सर्वस्व समर्पित करने वाले हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ विद्धान, पत्रकार, साहित्यकार एवं समाजसेवी लाला जगत ज्योति प्रसाद जी साहित्य और संस्कृति के प्रतीक थे। उनकी प्रतिभा, ओजस्विनी वाणी और सामाजिक विषमता से सतत संघर्ष की उनकी प्रतिबद्धता उन्हें देवत्व के करीब ले जाती है । उन्हें याद करने पर लगता है धवल केशधारी, मृदु मुस्कान लिए, धोती, कुर्ता, चप्पल धारण किये, लोगो से घिरे समस्याएँ सुनते और निदान ढूँढते लाला बाबू साक्षात् ब्रह्मस्वरूप सामने खड़े हैं।

अद्भुत विचारक और कर्मयोगी लाला बाबू स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् समाजहित  में सतत संघर्ष करते रहें। वैचारिक मतभेद उनके मानवीय रिश्तों में कभी बाधक नहीं रहे। वे भारत के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक जीवन के जीवन्त रूप थें। हालाँकि वे एक सम्पादक , पत्रकार एवं साहित्यकार होते हुए अपनी रचनाओं को पुस्तककार रूप नहीं दे पायें लेकिन उनकी कर्मठता उनके विचार आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी जुबान पर चस्पा है। वे अपने समय के ऐसे साहित्यकार थे जो समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ पेज ही नहीं रंगे बल्कि आगे बढ़कर नारे भी लगवायें।

बहुत कम लोग जानते है कि पत्रकार, साहित्यकार और समाजसेवी लाला बाबू एक सरकारी मुलाजिम भी थे और बिहार राज्य अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ के संस्थापक भी। प्रशासन द्धारा उन्हें कई बार गिरफ्तार करने की कोशिश भी हुई, लेकिन सदैव नाकामयाबी मिली। वे सत्याग्रह के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे।  एक बार वो जेल भरो अभियान का नेतृत्व कर रहे थे, उस समय के. बी. सहाय बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। पटना में सचिवालय के नजदीक आन्दोलनकारी आगे बढ़कर  गिरफ़्तारी दे रहे थे। पुलिस की गाड़ियाँ आती और आंदोलनकारी गाड़ी में जा बैठते। लोगो की गगनभेदी नारो से आकाश गूँज रहा था - "जब हम सबसे जेल भरेगा तब लाला जी जेल जायेंगे"। ये सम्मान और ये श्रद्धा अब देखने सुनने को भी नहीं मिलता। लाला बाबू अपने समर्थको के साथ - साथ अपने विरोधियों को भी परिवार का सदस्य मानते और उनके सुख-दुःख में सदैव सहभागिता निभाते।

साहित्य के क्षेत्र में कल्पना की जगह लाला बाबू ने यथार्थ को तवज्जो दी और लोगो के आँसू पोछने का काम किया। पत्रकारिता के क्षेत्र में राष्ट्रभक्ति के साथ - साथ सामाजिक समस्यायों को रखा और निदान ढूँढने का प्रयास किया। वे पद के पीछे नहीं स्वयं पद उनके पीछे दौड़ लगाता रहा। कई राजनीतिक, साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओ एवं समितियों के अध्यक्ष एवं सदस्य के रूप में अपने दायित्वो का  कुशलतापूर्वक निर्वहन करने वाले लाला बाबू अपनी सदाशयता से आलोचकों के मन को भी जीता। उनको याद करना हमें अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रेरणा तो देता ही है साथ ही साहस का भी संचार करता है।

लाला बाबू पॉलिटिकल होते हुए भी पॉलिटिशन नहीं थे, लोग सुबह से ही सुझाव, सहायता और कुछ सीखने  के लिए लगे रहते जिससे जीवन में सकारात्मक बदलाव मिले। वें लोगो की समस्याऐं सुनने उसे हल करने में सारा दिन लगा देते, कभी-कभी उन्हें भोजन तक का समय नहीं मिलता था, फिर भी उनके चेहरे पर सिकन की कोई रेखा उत्पन्न नहीं होती। वे अपने कर्मपथ पर एक प्रहरी की भाँति रात-दिन, गर्मी, जाड़ा, बरसात की परवाह किये बगैर डटे रहते। वे बहुत कम आराम करते थे, वे कहा करते थे - "जिंदगी दोबारा मिल सकती है लेकिन कर्म करने का अवसर दोबारा मिले न मिले, लोग अपना समझकर उम्मीद के साथ जुड़े हैं उम्मीदें टूटनी नहीं चाहिये, हमें सदैव कर्मपथ पर अग्रसर रहना चाहिए। कर्म करने का यह भाव यह अपनापन आज जब विलुप्त होता जा रहा है, वहीँ लाला बाबू की प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी।

उन्होंने धर्मपत्नी शकुन्तला देवी के सहयोग से साहित्यिक और सामाजिक पत्रिका "आग की लपटें " का प्रकाशन कर हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नया मापदंड स्थापित किया। लाला बाबू को याद करना हमें अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहने की प्रेरणा तो देता ही है साथ में साहस का भी संचार करता है। अनुभूति और लेखन दोनों पक्ष से वे मानव संवेदना के प्रतिनिधि थे। उनकी "मिट्टी" नामक कविता उनके व्यक्तित्व की वास्तविक रूप को व्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है -

" धरा दूसरी नहीं चाहिए मैं फिर जन्मूँ इस मिट्टी में

क्षीण काया से जितनी बनती सेवा देता रहूँ इस मिट्टी में

थका नहीं हूँ फिर भी नहीं भरोसा है कल को

जीवन मैंने पल-पल जीया सुख समृद्धि इतना भर को

दुःख दरिद्रता इतनी जग में मर्माहत हो जाता हूँ

सेवाभाव को जब उठते हाथ संग लाखों हाथ पाता हूँ "

लाला बाबू सेवाभाव लिए १९ नवम्बर १९२९ को तत्कालीन मुंगेर जिले के चकाई प्रखंड के रामचन्द्रडीह ग्राम के जमींदार बाबू वासूकीनाथ सहाय व सत्यभामा देवी के घर अवतरित हुए और ४ अप्रैल १९९८ को अपना नश्वर शरीर त्याग कर अपने लोक को वापस चले गयें। उनका एक अलग स्वरुप था जो दैवीय और अनुकरणीय है। उन्होंने अपना जीवन सत्य की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। लाला बाबू का  मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन की ओर ही बढ़ना चाहिए। आज भी उनके सौम्य और विराट व्यक्तित्व का स्मरण होने पर भाव-विभोर हो श्रद्धा से सर झुक जाते है। उनके कहे लिखे और किये को समझना और उसे अपनाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी। वे मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत तो हैं ही साथ ही एक आईना भी हैं जिसमे हम अपने आप को देखकर संवर सकते हैं। वास्तव में वे अनुभूति और लेखन दोनों में मानवतावाद के पोषक हैं। उनकी कृति के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व सार्वभौमिक है।

" देवत्व जब रूप बदलकर सामने आता है,

हे जगत ज्योति आपकी छवि उन्हें रास्ता बतलाता है "