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डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, यह पूरा नाम है उनका। उन्होंने 1925 में जिसकी नींव रखी, उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आज पूरी दुनिया जानती है, लेकिन हेडगेवार को जानने वाले बहुत कम होंगे। जिन्हें जानकारी भी होगी तो छिटपुट ही। संघ परिवार के बाहर हेडगेवार तो लगभग अनजाने ही रह गए। उनके समकालीन गांधी, नेहरू, आंबेडकर, सावरकर पर प्रचंड साहित्य उपलब्ध है। इनकी तुलना में हेडगेवार पर रत्तीभर भी नहीं। इतिहास ने तो उन्हें नकार ही दिया लगता है। 1940 में उनके निधन के बीस साल बाद नारायण हरि पालकर की पुणे से मराठी में प्रकाशित शायद पहली क़िताब आई। इसके बाद यह सिलसिला चल ज़रूर पड़ा, लेकिन वह भी एक दायरे से आगे नहीं बढ़ा।

डॉ. हेडगेवार को जानने के लिए 19वीं सदी के आरंभ के घटनाक्रम पर बारीकी से गौर करना ज़रूरी है। उस समय दो स्वयंसेवी संगठन लगभग एक ही समय उभरे। एक कांग्रेस सेवादल और दूसरा संघ। सेवादल कांग्रेस की छत्रछाया में 1923 में बना, स्वतंत्रता आंदोलन के चलते बहुत तेज़ी से बढ़ा और स्वाधीनता के बाद उतनी ही तेज़ी से टूटता चला गया। संघ सात-आठ स्वयंसेवकों के साथ 1925 में गठित हुआ। धीरे-धीरे पैठ जमाता गया और आज विश्व का विशालतम स्वयंसेवी संगठन है। दोनों सौ साल के हो चले हैं, लेकिन सेवादल अब ‘डूब चुकी नैया’ है, जबकि संघ ‘तैरती नैया’। दोनों का ढांचा लगभग समान है। दोनों में अर्धसैनिक बल जैसा अनुशासन है। लाठी-काठी, शारीरिक प्रशिक्षण, बौद्धिक उद्बोधन है। सेवादल में आज्ञाएं हिंदी में हैं जैसे सावधान, विश्राम। संघ में संस्कृत आज्ञाएं हैं जैसे दक्ष, आरम्। वैचारिक धरातल पर लेकिन दोनों बहुत भिन्न हैं। सेवादल गांधी चिंतन पर आधारित है, जबकि संघ की बुनियाद प्राचीन हिंदू दर्शन है। संयोग यह कि सेवादल के संस्थापक डॉ. एनएस हार्डीकर और संघ के जन्मदाता हेडगेवार, दोनों कोलकाता में कॉलेज ऑफ मेडिसिन में साथ-साथ रहे और दोनों की कर्मभूमि भी नागपुर रही है।

दोनों में एक और समानता है। दोनों कांग्रेस में रहे। 1923 में जब सेवादल बना, तब डॉ. हेडगेवार ने हार्डीकर के सहयोगी के रूप में काम किया है। इसके पहले वह कांग्रेस से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। जब डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे प्रांतिक कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तब अगस्त 1921 में वह प्रांतिक कांग्रेस के सहसचिव भी रहे। 1920 में नागपुर में कांग्रेस अधिवेशन की सफलता के लिए उन्होंने जी-तोड़ मेहनत की। मुंजे को हेडगेवार का गुरु माना जाता है, जबकि हार्डीकर के संरक्षक नेहरू थे। हेडगेवार, मुंजे हिंदू महासभा से भी जुड़े थे। उन दिनों किसी अन्य संगठन से जुड़ा व्यक्ति भी कांग्रेस में रह सकता था, क्योंकि कांग्रेस तब राष्ट्रीय मंच था, राजनीतिक दल नहीं। बहरहाल, कुछ समय बाद हार्डीकर और हेडगेवार ने अपने अलग-अलग रास्ते चुने। हार्डीकर ने गांधी का मार्ग अपनाया, जबकि हेडगेवार हिंदू राष्ट्रवाद के रास्ते पर चले। हेडगेवार, तिलक और सावरकर की हिंदुत्व की सोच से अधिक करीब थे। उनका हिंदुत्व कुछ उदार है। हिंदुत्व को उन्होंने धर्म नहीं, संस्कृति माना।

संघ की इस जीवंतता का स्रोत हिंदू दर्शन में है। ॠग्वेद के पृथिवीः सूत्र में इसकी जड़ें देखी जा सकती हैं। इसी सूत्र को बंकिमचंद्र ने वंदेमातरम् के रूप में पकड़ा, जो संघ की शाखाओं में आज भी राष्ट्रगान की तरह है। वंदेमातरम् के इस सूत्र को अरविंद घोष ने अपने संस्कृत काव्य ‘भवानी मंदिर’ में आगे बढ़ाया। यह काव्य 1893 से 1906 के बीच तब लिखा गया, जब अरविंद बाबू बड़ौदा में अध्यापन के लिए थे। इस काव्य में जीवनव्रती प्रचारकों से लेकर संगठन की संपूर्ण रचना का उल्लेख है। संघ की रचना का आधार वही लगता है। अरविंद बाबू बाद में कोलकाता चले गए। वह और हेडगेवार दोनों कोलकाता में क्रांतिकारियों की अनुशीलन समिति में कार्यरत थे। शायद यहीं हेडगेवार के मन में संघ जैसे संगठन की कल्पना आई हो या अरविंद बाबू ने उन्हें इस दिशा में काम करने के लिए कहा हो। यह केवल अनुमान है। इतिहास इस बारे में मौन है।

हेडगेवार घराना मूलतया तेलंगाना के कुंदकुर्ती गांव का है। यह गांव गोदावरी, वांजरा और हरिद्रा नदियों के त्रिवेणी संगम पर स्थित है। कभी प्राच्य विद्या का केंद्र था, लेकिन समय के साथ वहां से विद्वजनों का दूसरी जगह जाना शुरू हुआ। केशव के पड़दादा नरहरि शास्त्री इसी तरह महाराजा भोंसले के आश्रय में नागपुर गए। नरहरि शास्त्री के पोते बलिराम पंत और रेवतीबाई (मायके का नाम यमुनाबाई पैठणकर) के यहां केशव का जन्म 1889 के चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हुआ। उस साल यह तिथि एक अप्रैल को पड़ी थी। उनके दो बड़े भाई- महादेव और सीताराम, तीन बहनें- सरू, राजू और रंगू थीं। उनके माता-पिता का 1903 में प्लेग की महामारी में एक ही दिन निधन हो गया। तब केशव कोई चौदह वर्ष के थे।

Hedgewar

उनकी प्राथमिक शिक्षा गोल बंगला स्कूल में हुई। बाद में उनके पिता ने अंग्रेज़ी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से उन्हें नागपुर के नील सिटी हाईस्कूल में दाखिल कराया। नील उस समय नागपुर के अंग्रेज़ आयुक्त थे। आजकल इस स्कूल का नाम दादासाहेब धनवटे नगर विद्यालय है। इसी स्कूल में रहते उन्होंने महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की स्वर्ण जयंती पर बांटी जाने वाली मिठाई फेंक दी। बाद में, वंदेमातरम् के उद्घोष के कारण उन्हें स्कूल से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने अपनी अगली पढ़ाई विद्यागृह, यवतमाल और उस पर पाबंदी लगने के बाद नैशनल स्कूल पुणे में पूरी की और 1910 में मैट्रिक हुए। तब तक नागपुर में क्रांतिकारी मित्रों की मंडली बन गई थी। वे बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क बनाना चाहते थे। इसलिए हेडगेवार को वहां भेजने का निर्णय हुआ। डॉ. मुंजे ने इसमें सहायता की। इस तरह उन्होंने कोलकाता मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया। वहां युगांतर और अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य थे। पुलिन बिहारी दास, अरविंद घोष, त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती, श्यामसुंदर चक्रवर्ती और रासबिहारी बोस के साथ उन्होंने क्रांतिकारी काम किया। उनके जिम्मे क्रांतिकारियों तक शस्त्र पहुंचाना और क्रांतिकारी साहित्य का वितरण करना था। इसके लिए कोडनेम था- कोकण।

1916 में नागपुर लौटे और अपने आपको राष्ट्रीय आंदोलन में झोंक दिया। प्रांतिक कांग्रेस की असहयोग आंदोलन समिति में भी वह थे। उसके प्रचार के लिए उन्होंने पूरे मध्यप्रांत में तूफानी दौरा किया। काटोल और भरतवाडा के उनके दो भाषणों को राजद्रोही करार दिया गया और अगस्त 1921 में एक साल की सजा हुई। जुलाई 1922 में जब उन्हें रिहा किया गया, तो उनके सम्मान में कांग्रेस ने आमसभा का आयोजन किया। इसमें जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू और हाकिम अजमल खां जैसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शामिल हुए। 1925 में संघ स्थापना के बाद भी उन्होंने कांग्रेस नहीं छोड़ी थी। लाहौर कांग्रेस में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित होने से वह बहुत प्रसन्न हुए। संघ की शाखाओं को कांग्रेस का अभिनंदन करने के लिए 30 जनवरी 1930 को सभाएं आयोजित करने का आदेश दिया। बाद में डॉ. परांजपे को सरसंघचालक का पदभार सौंपकर 21 जुलाई को जंगल सत्याग्रह में शामिल हुए और दूसरी बार नौ माह की जेल भुगती। रिहा होने पर उन्होंने सरसंघचालक का पदभार फिर से ग्रहण कर लिया। संघ का विस्तार होता चला गया। अगस्त 1936 में उन्होंने मौसी केलकर को महिलाओं के लिए अलग राष्ट्रसेविका समिति गठित करने की अनुमति दी।

संघ और गांधीजी के बीच वर्धा में सीधा संवाद भी हुआ। 1934 में गांधीजी जमनालाल बजाज के आतिथ्य में वर्धा में रुके थे। जिस दो मंजिली इमारत में वह रुके थे, उसके सामने ही संघ का शिविर लग रहा था। गांधीजी शिविर को देखना और उनके संचालकों से मिलना चाहते थे। जमनालाल बजाज के जरिए वर्धा के संघचालक आप्पाजी जोशी तक संदेश पहुंचा। जोशी अपने साथियों के साथ गांधीजी को निमंत्रण देने पहुंचे। तय समय पर गांधीजी वहां पहुंचे और अनुशासन और सुरुचिपूर्ण व्यवस्था देखकर दंग रह गए। उन्होंने स्वयंसेवकों से पूछा, आपकी जाति क्या है? स्वयंसेवकों ने जवाब दिया- हिंदू। इससे गांधीजी की उत्सुकता और बढ़ी। उन्होंने हेडगेवार से मिलने की इच्छा प्रकट की। हेडगेवार दूसरे दिन नागपुर से वर्धा पहुंचे। शाम को गांधीजी और हेडगेवार के बीच लंबी चर्चा हुई। उन्होंने हेडगेवार से पूछा कि जिस जाति प्रथा को तोड़ना मुश्किल लग रहा है, उसे आपने क्षण में कैसे तोड़ दिया? हेडगेवार ने इस पर अपनी हिंदू संकल्पना को स्पष्ट किया। गांधीजी ने तब हेडगेवार को सलाह दी कि बेहतर होता संघ को आप कांग्रेस के संगठन के रूप में ही संचालित करते। हेडगेवार ने इस सुझाव को अस्वीकार किया। इसके बाद दोनों की कभी मुलाकात नहीं हुई। आंबेडकर से हेडगेवार की मुलाकात के भी कहीं-कहीं उल्लेख मिलते हैं, लेकिन आंबेडकर साहित्य में इसका कहीं ज़िक्र नहीं आता।

उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन परवान चढ़ रहा था। बहुत तेज़ी से घटनाएं घट रही थीं। हेडगेवार ख़ुद पर ध्यान नहीं दे पाए और 1932 से ही उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। अंत में, 1940 में ब्रेन हैमरेज से नागपुर में उनका निधन हुआ। इसके पूर्व उन्होंने गोलवलकर गुरुजी को नया सरसंघचालक नामजद कर दिया था। तब से संघ में सरसंघचालक की नामजदगी की यही परंपरा चल रही है।

हेडगेवार को सावरकर हिंदू राष्ट्रवाद का आधारस्तंभ कहा करते थे। हिंदुत्व को ही राष्ट्रीयत्व मानते थे हेडगेवार। उनकी राय में वे सभी हिंदुत्व के अंग हैं, जिनके पुरखे और संस्कृति एक है। हिंदू धर्म नहीं, संस्कृति है। हिंदुत्व की यह परिभाषा बहुत व्यापक है और इसमें इस देश को मातृभूमि मानने वाला हर कोई सम्मिलित है- चाहे वह किसी भी धर्म, पंथ को माने। इसके पीछे संघ की बुनियादी धारणा चरित्र निर्माण और एकत्व है,

संघे शक्तिःइति ज्ञात्वा लोककल्याणकारकः। येन संघ कृततस्मै केशवाय नमो नमः।।