हम सभी भारत वासियों ने एक सपना देखा था आज से ६४ साल पहले ...... सपना एक अखंड ,समृद्ध और खुशहाल भारत का जिसके सभी करोड़ों निवासी ....................... विश्व स्वास्थय संघटन के स्वस्थ्य मानव की परिभाषा:

[ हर वह व्यक्ति जो मानसिक / सामाजिक  / शारीरिक / आर्थिक रूप से स्वस्थ्य हे वही व्यक्ति स्वस्थ्य माना  जायेगा ]
की परिधि में आते हो ........................ 

हमने आजादी के ६४ सालो बाद भी उस लक्ष्य का केवल १०% अंश ही प्राप्त कर पाया हे जरा सोचे भारत में कितने लोग इस परिभाषा के अंतर्गत स्वस्थ्य हे अगर खबरों पर भरोसा करे तो मानव जाति के कल्याण के लिए चुने गए तथाकथित लोकतान्त्रिक मसीहा जो धन बल और मिडिया के दम पर चुनाव जीत कर आम आदमी का खून चूसने में व्यस्त हे और ९०% भारतीय जनता त्राहिमाम कर रही हे भारी विडंबना हे ...... अधिकाँश लोग और राजनेतिक इस विप्पनता का कारण समाज में व्याप्त भ्रस्टाचार को बताते और उसके खिलाफ झूट मूठ का प्रचार करने में व्यस्त हे / जबकि वास्तविक कारणों से उनका कोई परिचय ही नहीं हे तमाम आंदोलनों – तर्क – वितर्क - कुतर्क के बाद भी आम आदमी आज भी अपने आप को ठगा महसूस कर रहा हे आप को क्या लगता हे इस प्रकार तर्क –वितर्क –कुतर्क और भीड़ इकट्ठी कर हम कोई बदलाव अपने समाज में ला पायेगे ? पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के माननीय जज श्रीमान काटजू साहेब ने कहा था की भारत का हर नागरिक भ्रस्त हो गया हे और इस देश की मदद ईश्वर भी नहीं कर सकता हे ......... और यह बिलकुल सही हे क्योकि हममे से प्रत्येक दूसरों को बदलने के प्रयत्न में लगा हुआ हे

जिसका एक मात्र कारण महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के शब्दों में – यह पूरी दुनिया समस्त इंसानों के लिए एक खतरनाक स्थान में बदल चुकी हे केवल उन लोगो के कारण नहीं जो शोषण कर रहे हे या पापी हे या भ्रस्त हे बल्कि उन असंख्य अच्छे लोगो के कारण जो इसके लिए कुछ करते या सोचते ही नहीं ........................................... आइये हम सब मिलकर मिलकर अपना भाग्य बदलने के लिए वास्तविक कारणों की खोज करे और उनका समाधान निकाले

जबकि वर्तमान व्यवस्था मात्र ३% लोगो का पोषण करती हे / आप को जान कर आश्चर्य होगा, न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया के ९०% संसाधनों का उपभोग केवल ३% लोग जो बेहद खतरनाक और चालाक हे पिछले ३००० वर्षों से कर रहे हे जबकि बाकी बचे ९७% आम आदमी के हिस्से में बचा खुचा केवल १० % हिस्सा आता हे / यह बेहद त्रासद पूर्ण स्थिति हे / इसको हर हालत में बदलना आवश्यक हे नहीं तो पुरे विश्व में अफगानिस्तान , रूस, लीबिया ,सोमालिया ,अरब देशो जैसी खूनी क्रान्तिया होना आवश्यम्भावी हे

मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की और अभी तक ध्यान ही नहीं दिया गया जबकि वास्तविकता यह हे की मानव जाति के भाग्य के उत्तरदायी समस्त लोग और संस्थायों के पास इस समस्या के समाधान की न कोई योजना हे और न ही कोई ज्ञान जबकि समस्या हे सभी मानव मशीनीकरण का शिकार हो गए, आज का मानव बच्चे पैदा करने की मशीन बन चुका हे हम बिना सोचे समझे आबादी बढाने की प्रक्रिया में लगे हे ,वास्तविकता तो यह की आज की दुनिया में इतना शिक्षा का प्रचार प्रसार होने के बाद भी ९८% मानव जाति के सदस्य अपने पूर्वज बन्दर के जीन की अनुकृति मात्र बन कर रह गए हे हम आज भी ९८% बंदरों के जीन अपने अंदर ढो रहे हे बुद्धिमानी हमारे आस पास भी कही नहीं फटकती प्रतीत होती हे ,ऐसा प्रतीत होता हे की हम , ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट उत्पत्ति होने की सच्चाई को भी भूल गए हे / हमारा मकसद और सारा ज्ञान केवल पूर्व में विद्वानों द्वारा की गयी खोजो को रटने और तथाकथित शिक्षित बनकर गला काट प्रतिस्पर्धा के दौर में हाड तौर मेहनत कर अपने और अपने परिवार का पेट भरने और अपने जैसे ही नए मानव पैदा करने तक ही सीमित हो गया हे मुझे आज के मानव की दशा देख कर अनायास बन्दर की कहानी याद आती हे ...............हालाकि कुछ मित्रों को बन्दर से मानव की तुलना अखर सकती हे परन्तु सच्चाई यही यह की बन्दर हमारे जेनेटिक पूर्वज थे और हम उनकी आदतों को मानव रूप में आज भी ढो रहे हे २१वीं सदी की शुरुआत में इन्सान बंदरों जैसी स्थिति में पहुँच चुका हे और इसके जिम्मेवार ३ % तथाकथित लोग हे जो झूठे लोकतंत्र की दुहाई देकर विभिन्न तरीको से आम आदमी को बन्दर बना कर रखते हे द्वितीय विश्व युद्ध [ जो संसाधनों पर कब्जे और महत्वकान्षा की लड़ाई थी ] की समाप्ति के बाद १९४५ के बाद जब पूरी मानवता भयंकर युद्ध और करोड़ो मानव जीवन के अंत की पीड़ा से कराह रही थी .......... लोग जीवन से निराश थे और अपने परिजनों के निधन से हतोत्साहित थे ,उस समय मनोरंजन के साधन के तौर पर सर्कस का उदय हुआ और भारी मात्रा में बंदरों की आवश्यकता आन पड़ी ,दक्षिण अमेरिका के जंगलो में बंदरों को पकड़ने बड़े बड़े शिकारी दल पहुचने लगे , परन्तु हम सभी जानते हे की खाली हाथ बन्दर को पकड़ना बहुत ही असंभव कार्य हे , परन्तु बंदरों के लालची पन से वाकिफ शिकारियों ने एक बेहतरीन तरकीब निकाली उन्होंने शीशे के बड़े बड़े जार खरीदे जिनका मुहाना बेहद सकरा था उन जारो में शिकारियों ने मूंगफलियां भर दी. और उन्हें बहुतायत में जंगल के बीच पेडों के नीचे रख कर आराम से नदी किनारे पिकनिक मनाते थे , अपराहन में जब वे अपने जारो के पास जाते थे तो हर जार में हाथ डाले बैठा एक बन्दर उन्हें जरुर मिलता था , जिसकी मुटठी मूंगफली से भरी होती थी , और वह आसानी से सब बंदरों को पकड़ कर पिंजरो में भर कर सर्कस कर्मियों को बेच देते थे और भारी मुनाफा कमाते थे दरअसल जानते हे होता क्या था ............. शिकारियों द्वारा चारे के रूप में जार पेडो के नीचे रख कर जाने के बाद बन्दर नीचे उतर कर आते और मूंगफली के लिए जार में हाथ डाल कर मुटठी भर मूंगफली निकालने की कोशिश करते पर सकरे मुहाने के कारण असफल हो जाते ,परन्तु लालचीपन के कारण कभी भी मुटठी खोलते नहीं थे इस कारण उनका हाथ भारी शीशे के जार में फंस जाता था और वह बंद मुटठी भर मूंगफली के चक्कर में वह जीवन भर गुलाम हो जाते थे .............. अब जरा ईमानदारी से आज अपनी स्थिति के बारे में सोचिये ............. क्या हम लोकतंत्र के बन्दर नहीं बन गए हे , जिसे देखो वही वोटर रूपी बन्दर को लुभाने के लिए पैसा ,दारू ,प्रलोभन ,जातिवाद,भाषावाद मीडिया , अखबार , झूठ, परिवारवाद ,न जाने किन किन तरीको से लुभा कर हमारा मत लेकर हमको ही गुलामो जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर करते हे हमारे लोकतंत्र में आम आदमी मुसीबतों से घिरा हे वह अपनी मुटठी बंद किये लगातार जीवन से संघर्ष कर रहा हे ,उसके हाथ सम्पूर्ण राष्ट्रीय संसाधनों में से हिस्से के रूप में मात्र मूंगफली ही लगी हे [याद रहे मूंगफली को धनवान लोग आम आदमी का बादाम भी बताते हे ]

 जिसे वह पिछले ६४ सालो से अपनी बंद मुटठी में इस आशा से दबाए बैठा हे की कही यह भी हाथ से न निकल जाये ............................. 

यह भारी त्रासदी हे ...... आम आदमी को एक शाजिस के तहत यह अहसास दिलाया जा रहा हे की वह दोयम दर्जे को परिभाषित करता हे , हम अपने मानवोचित गुणों को भूलते जा रहे हे आज की वर्तमान परिस्थितियों में मुझे जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती हे वह यह हे की हम सब कृतिम मानसिकता के साथ पैदा हो रहे हे विशेष बात यह हे की मानव जाति के पुरुष सदस्य जो जीवन के ९०% निर्णयों को प्रभावित करते हे ,जन्मजात एक आंतरिक अभिलाषा पाल कर पैदा हो रहे हे और उसका पोषण कर रहे हे वह घातक अभिलाषा हे अपने जैसे ही अन्य पुरुष सदस्यों पर हुकूमत और पृथ्वी गृह के साझा संसाधनों पर कब्ज़ा कर अपना वर्चस्व स्थापित करना / इस खतरनाक खेल को हजारों सालो से बदसूरत दोहराया जा रहा हे / शायद ऐसी लिए पृथ्वी पर बड़े लंबे लंबे युद्ध थोपे गए जिसमे करोड़ो आम आदमियों ने अपना जीवन नष्ट कर दिया यह वर्चस्व की लड़ाई अब पिछले ३०-४० वर्षों से युद्ध के मैदानों से सिमट कर आम जीवन की रोज मर्रा की घटनायो , उधोगो , राजनीती , समाज और जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई देती हे फिर भी तस्सली की बात हे की मानव जाति की महिला सदस्य पुरुष सदस्यों के मुकाबले एक बिलकुल उलट भावनायो का पोषण करती प्रतीत होती हे शायद इसी कारण पृथ्वी पर मानव जीवन संभव हो पाया हे , आम तौर पर पूरी दुनिया में महिलाये सामाजिक होने की भावना का पोषण करती हे , वह अपना समय दूसरों को समझने और उनकी मुसीबतों को दूर करने में मदद करने में व्यतीत करती हे समाज निर्माण में महिलायों का विशेस योगदान हे ,परन्तु पुरुष सदस्य वर्चस्व की भावना के साथ काम कर महिला सदस्यों की पूरी मेहनत को धुल धूसरित करने में लगे रहते हे मुद्दे की बात यह हे की आज पूरी पृथ्वी का भाग्य इन्ही पुरुष सदस्यों पर निर्भर हे , जो केवल अपनी ताकत बढाने और अपने जैसे ही दूसरे सदस्यों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर और ज्यादा ताकत वर बनने तक सीमित हे ,उनके अंदर सामाजिक भावनायों और उत्तरदायित्व का लोप होता जा रहा जीवन की हर विधा में गला काट प्रतिस्पर्धा , लूट खसोट , भ्रस्टाचार , राजनेताओ और उद्योगपतियों में अकूत संपत्ति जमा करने की अभिलाषा