समराथल धोरे पर विराजमान श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ह्रदय में विचार उत्पन हुआ की बिश्नोई धर्म की स्थापना हेतु अवतार धारण किया तथा उनके सम्पन होने के बाद बारहा थाप घणा न ठाहर की उक्ति को चरितार्थ करने हेतु इस पावन धरा पद पधारे. इस संकलप के साथ श्री देवजी को इह लीला की सवरण की रकुरणा हुई और इस पावन हरी कंकेड़ी के निचे आकर पदमासन लगाया. श्री जम्भेश्वर भगवान का महापरी निर्वाण विकर्म सवंत 1593 मिगसर वदी नवमी (चिलत नवमी) 85 साल ३ महीने और 10 दिन की अवस्था में इसी पावन धाम की हरी कंकेड़ी के नीचे हुआ था उस समय कालपी के व् अन्य भक्त भी श्री जाम्भोजी के साथ भाव विहल होकर स्वर्गारोहण कर गए, जिस समय गुरूजी का तिरोघात हुआ उस समय पृथ्वीमंडल पर अंधकार छा गया ! जिन भक्तो ने गुरु के साथ प्राणोत्स्रग किया, उनकी समाधि इस पावन धरा पर लगाई गयी ! व् श्री भगवान जी की समाधी मुक्तिधाम मुकाम तालवा में लगाई गयी ! सम्वत 1593 से लेकर आद्य पर्यन्त अनेको ऐतिहासिक महा परुषो की तपस्या स्थली व् अनेक तपानुष्ठान की साक्षी रही इस साथरी पर, पूज्य पाद महंत श्री स्वामी राजेंद्रानन्द जी महाराज की अथक प्रयासों व् बिश्नोई समाज के सहयोग द्वारा इस भव्य मंदिर का निर्माण हुआ है !

देह धरे निज करतायी कारण सरे पिरोजन नाही जम्भसागर

लालसर की साथरी पहुँच किया प्रयाण इला माही अधियारो हुयों भोमज चरस्थो भाण साखी

"सचिदानंद आचार्य" श्री गुरु जम्भेश्वर निर्माण सथल लालसर साथरी