कुसुमाकर पंत का जन्म २३ जनवरी १९८६ को सायं ५ बज कर २ मिनट हल्द्वानी उत्तराखंड, भारत में हुआ। पिताजी श्री० प्रभाकर चन्द्र पंत पंतनगर विश्वविद्यालय के गणित के गोल्ड मेडलिस्ट थे, जिन्होंने आजीवन गणित एवं भौतिकी जैसे जटिलतम विषयों में विशेष उपलब्धियों के साथ अध्यापन का कार्य किया | उनका असमय निधन नवम्बर २००७ में हुआ | पिता के निधन के पश्चात् लेखक को ढाढस बंधाने वाला कोई ना था | फिर भी उनकी माताजी श्रीमती भागीरथी पंत के प्रभावी एवं कर्मठ व्यक्तित्व एवं जीवन ने लेखक को जीवन नई उमंग से जीने और कला, विज्ञान एवं रचना के क्षेत्र में नवीन ऊंचाइयों एवं उल्लेखनीय शिखरों को छूकर हासिल करने की अंतर्गम्य प्रेरणा प्रदान की | लेखक की माताजी हिंदी एवं संस्कृत विषयों में एम०ए० होने के बावजूद सरल एवं निश्छल स्वभाव की महिला हैं | लेखक को धार्मिक प्रवृत्ति एवं आध्यात्मक प्रकृति अपने माता-पिता से अनायास ही अनुवांशिकता में मिली है | आज जो भी शख्सियत लेखक ने इख्तियार की है उसमें उनकी माताजी का अवर्णनीय योगदान है |

हरिद्वार से पढाई में लेखक ने अनेक मुश्किलों का सामना किया | फिर भी प्रकृतिस्थ एवं शांत रहकर बी०एस०सी० कंप्यूटर विभाग एवं तत्पश्चात गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर एम०सी०ए० की विशेष डिग्री अर्जित की | घर की ज़िम्मेदारी एवं जीवनोपार्जन की वजह से हरिद्वार से नाता जुड़ा रहा | यह काल लेखक के जीवन में सीखने की दृष्टि से अभूतपूर्व एवं उल्लेखनीय संबल की तरह व्यतीत हुआ | अनेकानेक मुश्किलों के मध्य भी लेखक ने लेखन का कार्य सहृदय रूप से किया | वर्तमान में प्रस्तुत हैं लेखक के कुछ लेख एवं कविताएँ


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कुछ विशेष अंश ....................


वीरता का ध्वज

तब की बात है...
सामने पहाड़ था सिंह की दहाड़ सा,
फिर भी तुम डटे रहे काल सा अड़े रहे,
ध्वज कभी झुका नहीं मान कभी घटा नहीं,
युद्ध की छाप का दुश्मन के विलाप का,
सन्देश मिला देश को और पूरे विदेश को,
जब भी ख़तरा मंडराया ध्वज स्वच्छंद हवा में लहराया,
विवेक से ही काम लिया सूझबूझ का काम किया,
देश का गौरव बना रहा माटी में सौरभ सना रहा,
आश्वस्त है हर देशवासी शंका नहीं मन में ज़रा-सी,
शत्रु-ध्वज उखाड़ दिया दुश्मन को पछाड़ दिया,
अरिहंत तुम कहलाए युद्ध-घाव समय ने सहलाए |

और अब ये हालात है...




हार नहीं मानूँगा

कितना भी हो जाऊँ तबाह पर हार नहीं मानूँगा,
किस्मत भी हो जाए चाहे खफ़ा पर हार नहीं मानूँगा |

पत्थरों पर चलकर ही जीना मैंने है सीखा,
अब तक जो किया है खुदका नहीं उधार लिया किसी का,
कितना भी बुलवाए ये झूठ मुझसे ज़माना,
पर इसके इस नियम का इख्तियार नहीं मानूँगा,
कितना भी हो जाऊँ तबाह पर हार नहीं मानूँगा,
किस्मत भी हो जाए चाहे खफ़ा पर हार नहीं मानूँगा |

इस बार मुझे ये लगा कि ज़माना कुछ आगे निकल गया,
और मैं पीछे से ताकता ही रह गया,
ऐसा भ्रम एक बार तो हो गया,
पर मैं इसका भरोसा हर बार नहीं मानूँगा,
कितना भी हो जाऊँ तबाह पर हार नहीं मानूँगा,
किस्मत भी हो जाए चाहे खफ़ा पर हार नहीं मानूँगा |




रसमाधुरी
एक अनकही-सी एक अनसुनी-सी रस-माधुरी
बिखरी थी मेरे ललाट और मस्तिष्क के ख्यालों पर,
जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था मदमस्त,
चहचहाते हुए उस धुन वाले पुराने संगीत पर,
जब मैंने तुम्हे पाया था प्रकृति के उत्क्रष्ठ,
हो रहे पुलकित नवीनतम संकलित और विद्यमान,
प्रतापी और मधुर सामंजस्य और सौहार्द्र में,
जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था,
ज़ोर-२ से किसी की बात पर कहकहे लगाते हुए,
तुम्हारी ताली में भी मैं ही बज रहा था शायद,
और तुम्हारे उल्लसित और खिले हुए मन का,
मैं ही था शायद एक कोना और उसमें समाया हुआ-सा,
जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था,
किसी की याद में रात दिन दिए की बाती की तरह लगातार,
निश्छल और निडर खोये हुए,