'ज़रा संभल के! मन में कुछ सवाल है तो उन्हें मन में ही रखो वर्ना भ्रष्टाचार समर्थक कहलाओगे

रवीश कुमार ने उस रोज़ अच्छी बात कही थी कि हम कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं जिसमें सवाल उठाने वाले को राष्ट्रविरोधी या गद्दार क़रार दे दिया जाता है।


मगर राष्ट्रविरोधी या गद्दारी के जुमले पुराने हुए, अब सरकार के फ़ैसले को अहम मानकर भी अगर आप दो-चार सवाल उठा दें तो आपको भ्रष्टाचार का समर्थक ठहराया जाना भी तय है।

अजीब दौर है। जो बोलता है, उसे इस तरह चुप रहना सिखाया जाता है। यह भूलते हुए कि सरकार के दर्ज़नों फ़ैसले (बलात्कार आरोपी को मंत्री बनाने से लेकर टीवी चैनल पर प्रतिबंध तक) सवाल उठाने पर ही पलटे गए, सुधारे गए।

कौन सच्चा भारतीय भ्रष्टाचार का ख़ात्मा नहीं चाहता। पर जो सवाल उठ रहे हैं, उन्हें सुनने का हौसला होना चाहिए। काले धन पर काबू पाने की यह पहल अहम है। पर इसके पीछे इच्छाशक्ति तब दिखाई देगी जब राजनीतिक दल धन चैक से लें, खातों को पारदर्शी बनाएं, आरटीआइ से आँख न चुराएं।

और इसकी पहल – मैं फिर कहना चाहूंगा – सत्ताधारी भाजपा क्यों नहीं करती? वाहवाही बटोरने में उसे इससे और फ़ायदा ही होगा! भ्रष्ट लोग और व्यापारी काला धन खंगालें यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, पर सत्ताधारी दल ही काला धन – नए नोटों में सही – वसूलना जारी रखे, यह तो कोई बात न हुई!

नेताओं का विलासिता भरा जीवन, बग़ैर कमाए बंगले-फ़ार्महाउस, बड़ी-बड़ी गाड़ियां, कपड़े-लत्ते सब काले धन से चलते हैं। नए-पुराने नोटों का आना-जाना ‘लोकतंत्र’ के इस काले पहलू पर कोई फ़र्क़ नहीं डालता तो माफ़ कीजिए, आपकी कोशिश आधी हक़ीक़त आधा फ़साना है।