युवा कवि कमलेश यादव की कविताओं में आपको उस समाज का सजीव और संवेदनशील चित्रण मिलेगा जिसकी उपेक्षा हर जगह होती आई है लेकिन जिसके श्रम शक्ति ने ही दुनिया में पूंजी खड़ी की है, वस्तुओं को मूल्यवान बनाया है. इन कविताओं में आपको उस ग्रामीण समाज का चित्रण मिलेगा जो "अहा, सुंदर ग्राम्य जीवन!" टाइप की गांव से सुदूर शहर में बैठकर लिखी गई कविता नहीं है, बल्कि उस यथार्थ को भोगते इंसान की संवेदनाएं हैं. अपने पहले ही कविता संग्रह 'अपना लोहा अपनी धार' में संवेदनशील युवा कवि कमलेश यादव इन संवेदनाओं और सामाजिक यथार्थ को शब्दों में पिरोने की परंपरा को आगे बढ़ाते नजर आते हैं.

धरती की गर्भ में

सदियों पिघलते होंगे पत्थर

कोयला और लोहा बनने में

कुर्बान होते होंगे असंख्य जंगल

और हमारी हड्डियाँ समूची की समूची

और हमारा रिश्ता है इतना सघन

कि जब हथौड़ा मारते हो

तो चमकती हैं चिंगारियाँ

निकलती हैं आग

तुम जब भी लोहे को छुओगे

उसमें हमारे पसीने की आँच मिलेगी

और हमारे खून की गंध !