इस लड़की की हिम्मत और काम को सलाम...भीख मांग रहे बच्चों के लिए छोड़ दी जॉब


हिसार: चंडीगढ़ में अनु का रिश्ता जुड़ चुका था लेकिन जब ससुरालियों को बता चला कि समाजसेवा के लिए उसने नौकरी छोड़ दी है तो वो लोग बोले, जॉब करोगी तो तो ठीक है, वरना यह समाजसेवा पसंद नहीं। अनु ने शादी न करने का फैसला कर अपना मिशन जारी रखा। जी हां शादी करके अच्छे घर में जाने का सपना हर लड़की का होता है लेकिन अनु का सपना और मिशन कुछ और था इसलिए उसने शादी न करना ही मंजूर किया। हालांकि अनु के इस फैसले से उसके परिजनों ने उसे बहुत समझाया।


दुर्जनपुर गांव की दलित बेटी अनु चीनिया (24) ने करीब डेढ़ साल पहले शहर के चौराहे पर बच्चों को भीख मांगते देखा। उसे लगा कि इन बच्चों को भीख की नहीं, किताब की जरूरत है। तब उसके दिमाग में आया कि इन बच्चों के हाथ में किताब कौन देगा...जवाब मिला ऐसे कुछ बच्चों को तो खुद पढ़ा सकती हूं। बस उसे छोटे से कदम से कारवां बनता गया। हालांकि इन बच्चों के परिजनों ने अनु को ऐसा करने से रोका और पूछा कि भीख मांग कर ये बच्चे 100-150 रोज कमा लेते हैं तुम कितने पैसे दोगी।


अनु ने हिम्मत नहीं हारी और बच्चों के परिजनों को समझाया कि पढ़े-लिखे होना बहुत जरूरी है और आखिरकार वे लोग बच्चों के पढ़ाने पर राजी हो गए। बच्चों के पढ़ाई में रूचि लेने के बाद अनु उनके कागज तैयार करके बच्चों का नाम सरकारी स्कूल में दाखिल करवाया। अनु का मिशन किसी एक राज्य तक सीमित रह इस मिशन को चलाना नहीं है वह पूरे देश को भिखारी मुक्त बनाना चाहती है। कोलकाता के एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट में कार्यरत जगदीश कुमार की तीन बेटियों और एक बेटे में सबसे बड़ी अनु है।

अनु ने बताया कि जब उसने जॉब छोड़ने का फैसला परिजनों को सुनाया तो उन्होंने कहा कि लाइफ खराब कर लेगी। अनु ने कहा कि उसने परिजनों को कहा कि बच्चों को पढ़ाने में संतुष्टि मिलती थी। जिस काम में संतुष्टि मिले, वहीं करना चाहिए। बस परिजन कुछ नहीं बोले और अनु ने शुरू किया अपना मिशन। अनु हिसार के सूर्य नगर की झुग्गियों में पहुंची। यहां के 500 से ज्यादा बच्चे भीख मांगते थे।

अनु ने 50 बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। फिर उसी इलाके के सरकारी स्कूल में 30 बच्चों का एडमिशन करवा दिया। करीब 20 बच्चों के सरकारी प्रमाण पत्र न होने से दाखिला नहीं ले पाए। अनु ने उन बच्चों के साथ 40 और बच्चों को साथ लेकर दूसरा बैच शुरू कर दिया। अनु का हर कदम पर सहयोग उसके गांव के अशोक नंदा और सुरेश पूनिया ने दिया। इन तीनों ने साल 2015 में 11 अगस्त को सदस्यीय कमेटी बनाकर संगठन पंजीकृत कराया। नाम रखा-भीख नहीं, किताब दो।

अनु इस संगठन की प्रधान है और सुरेश सचिव। अनु ने कहा कि लोग इन बच्चों को भीख देकर गर्व महसूस करते हैं कि यह पुण्य का काम है लेकिन मेरी नजर में यह पाप है क्योंकि इससे भीख को बढ़ावा मिलता है और ये उनकी कमाई का एक साधन बन जाता है और कंबल या कपड़े देकर बच्चों को दूसरों पर आश्रित होने की आदत पड़ जाती है। अनु के मुताबिक बच्चों को भीख की जगह हाथ में किताब दो ताकि शिक्षा से जुड़ वे अपना जीवन संवार सकें। अनु शहीद सूबे सिंह स्मारक के पार्क में खुले आसमान के नीचे खुद बच्चों को पढ़ाती है। जब मौसम खरीब होता है तो डर रहता है कि आज क्लास बंद करनी पड़ेगी। हालांकि सर्दियों में अनु ने क्लासें कुछ समय के लिए बंद कर दी थीं लेकिन अब फिर शुरू कर दी हैं। अनु ने बताया कि उनका संगठन खुद झोपड़ियों में जाकर इन बच्चों को लाता है और उनको पढ़ाया जाता है। अनु का काम सच में सराहनीय है क्योंकि जिस काम की पहल सरकार को करनी चाहिए वही काम 24 साल की एक लड़की कर रही है वो भी अपनी नौकरी छोड़ कर।